मैं, और मेरी अयोध्या

मैं, और मेरी अयोध्या

ऊँ

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जय श्रीराम

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लखनऊ से प्रकाशित होनेवाला दैनिक स्वतंत्र चेतना औपचारिक तौर पर मेरा पहला अखबार था, जहां मुझे बाकायदा वेतन मिलना शुरू हुआ था। उससे पहले सीतापुर रोड से प्रकाशित होनेवाले ‘निष्पक्ष जनमंच’ सहित कई छोटे-मोटे अखबारों में काम किया। लेकिन किसी ने एक पैसा नहीं दिया। हां, लखनऊ से ही प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ में मेरा व्यंग्य कविताओं का स्तंभ ‘मासिक चुटकियां’ छपता था, और उसका नियमित भुगतान भी होता था। यह स्तंभ काफी लोकप्रिय भी था।

राष्ट्रधर्म से मेरा जुड़ाव 1984 के जुलाई-अगस्त माह से ही हो गया था। उसी दौरान पंडित वचनेश त्रिपाठी संपादक के रूप में वहां से सेवानिवृत्त हुए थे, और वीरेश्वर द्विवेदी ने संपादक का पदभार संभाला था। लेकिन वचनेश जी का नाम सलाहकार संपादक के रूप में पत्रिका की प्रिंट लाइन में बराबर छप रहा था। उन्हीं दिनों मेरा पहली बार राष्ट्रधर्म कार्यालय में जाना हुआ था। दरअसल, मेरे बाबू जी डाकघर में थे, और उन दिनों राजेंद्र नगर पोस्ट आफिस में ही उनकी पोस्टिंग थी। राष्ट्रधर्म का कार्यालय भी राजेंद्र नगर में ही है। राजेंद्र नगर पोस्ट आफिस से ही वह पत्रिका डिस्पैच होती थी। एक बार बाबूजी वह पत्रिका लेकर घर आए। 

तब तक लखनऊ से प्रकाशित होनेवाले दैनिक स्वतंत्र भारत में मेरी कुछ कहानियां, कविताएं और लेख प्रकाशित हो चुके थे। उम्र 17-18 वर्ष ही थी, लेकिन स्थानीय मंचों पर कविताएं पढ़ने भी जाने लगा था। बाबूजी के द्वारा घर लाई गई राष्ट्रधर्म पत्रिका उलटते-पलटते निगाह तुरंत उसके पते पर पहुंच गई। मैं बिरहाने में रहता था, और पत्रिका छपती थी राजेंद्र नगर से। यानी बिल्कुल बगल का मुहल्ला। तो शाम होते ही मैं अपने पड़ोसी मित्र कृष्णशंकर श्रीवास्तव के साथ राष्ट्रधर्म  कार्यालय जा पहुंचा।

वहां बाहर ही किसी से पूछा कि संपादक जी कहां बैठते हैं ?  गेट पर बैठे व्यक्ति ने थोड़ी दूर पर खड़े एक दुबले-पतले धवल केश वाले व्यक्ति की ओर इशारा कर दिया। वह पंडित वचनेश त्रिपाठी थे। मैंने उनके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा कि मैं अपनी एक कविता राष्ट्रधर्म में प्रकाशनार्थ देना चाहता हूं। पंडित जी ने अंदर की ओर जानेवाले संपादकीय कक्ष का रास्ता बताते हुए कहा कि अब तक मैं ही संपादक था। लेकिन अब रिटायर हो गया हूं। आप अंदर जाकर वीरेश्वर जी से मिल लीजिए। अब वहीं संपादक हैं।

मैं अंदर जाकर वीरेश्वर जी से मिला। उनके बगल ही थोड़ी दूर पर एक और खाली कुर्सी रखी हुई थी। कुछ देर बाद वचनेश जी आकर उस कुर्सी पर बैठ गए। बातचीत शुरू हुई। वीरेश्वर जी ने मेरी कविता लेकर पढ़ी, और अपने पास रख ली। बोले, अगले अंक में देखता हूं। वीरेश्वर जी ने बड़े ही अपनत्व के साथ मेरा पूरा परिचय पूछा। शिक्षा के बारे में जानकारी ली। कहां रहता हूं, और कहां का रहनेवाला हूँ, यह भी जाना। साथ ही, यह भी कहा कि आते रहिए। वास्तव में इन संपादकद्वय के साथ उस दिन हुई मुलाकात ने ही मेरे पत्रकारिता कैरियर की नींव डाल दी थी।

चूंकि राष्ट्रधर्म पत्रिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ही मासिक पत्रिका थी। इसलिए संघ से मेरे संबंधों की नींव भी यहीं से पड़ी। वह भी वीरेश्वर जी और वचनेश जी जैसे दो दिग्गज पत्रकारों की छत्रछाया में बढ़ते-पनपते। शाखा से संबंध तो इसके एक-दो साल बाद आया, जब राष्ट्रधर्म में मेरा व्यंग्य कविता का स्तंभ मासिक चुटकियां प्रकाशित होने लगा।

बहरहाल जुलाई-अगस्त में जो कविता में राष्टधर्म में प्रकाशनार्थ दे आया था, वह नवंबर 1984 के अंक में प्रकाशित होनी थी। पंडित वीरेश्वर द्विवेदी ने यह सूचना मुझे पहले ही दे दी थी, इसलिए मुझे इस अंक की प्रतीक्षा थी। राष्ट्रधर्म जैसी स्तरीय पत्रिका में अपना नाम छपा देखने एवं औरों को भी दिखाने की उत्सुकता चरम पर थी। पत्रिका का नवंबर अंक, 30-31 अक्तूबर को ही छप जाता था।

दुर्योग से 31 अक्तूबर, 1984 देश में एक नया भूचाल लेकर आया। उसी दिन सुबह-सुबह दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके ही सुरक्षा रक्षकों द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई। मैं उसी दिन शाम को राष्ट्रधर्म कार्यालय पहुंचा, तो वहां एक बड़ा सा रथनुमा वाहन खड़ा दिखाई दिया। रथ पर भगवान राम और माता जानकी की सुंदर प्रतिमाएं सजी-धजी खड़ी थीं। मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि ये रथ यहां कहां से लाया गया है। थोड़ा और आगे बढ़ा तो देखा कि राष्ट्रधर्म के नवंबर अंक के बंडल जमीन पर रखे हैं, और कुछ लोग उसके कवर पृष्ठ के अंदर वाले पृष्ठ पर एक पर्ची चिपकाकर रख रहे हैं।

दरअसल, माजरा यह था कि उस अंक में एक लंबी कविता छपी थी, जिसका शीर्षक था – ‘आ बेटा राजीव, तेरा मौरूसी हक है’। इस कविता के कवि का नाम फिलहाल मुझे स्मरण नहीं है। लेकिन इतना याद है कि इस लंबी कविता में इंदिरा गांधी का पूरा इतिहास बड़े ही व्यंग्यात्मक तरीके से चित्रित किया गया था। इस अंक में इंदिरा गांधी पर और सामग्री छपी थी। यही कारण था कि अंक के अंदर सावधानीपूर्वक एक पर्ची चिपकाई जा रही थी, जिसपर लिखा था – ‘इस अंक में प्रकाशित सामग्री किसी के प्रति किसी दुर्भावनावश प्रकाशित नहीं की गई है। सामग्री का चयन मात्र संयोग समझा जाए’।

यह सब देखते हुए मैं संपादकीय कक्ष में पहुंचा तो संपादक वीरेश्वर द्विवेदी जी ने पहले तो पत्रिका का नवप्रकाशित अंक देकर मेरा स्वागत किया। फिर वह पर्ची चिपकाने की पूरी कहानी सुनाई। उसके बाद मैंने उनसे बाहर खड़े रथ के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि यह राम-जानकी रथयात्रा का रथ है, जोकि श्रीरामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए निकाली जा रही है। लखनऊ के बेगम हजरत महल में संभवतः 14 अक्तूबर हुई एक बड़ी सभा के बाद इस रथ को दिल्ली जाना था । लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के कारण यह यात्रा अचानक स्थगित कर दी गई थी, और राम-जानकी रथ राजेंद्र नगर स्थित संस्कृति भवन में लाकर खड़ा कर दिया गया था।

यह था मेरा श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन से पहला परिचय। मैं हूं तो मूल रूप से अयोध्या का ही निवासी। लेकिन 18 वर्ष की आयु में तब तक मैंने रामजन्मभूमि के बारे में कुछ भी नहीं सुना था। जो कुछ भी सुना, वह 31 अक्तूबर की शाम राष्ट्रधर्म कार्यालय में पंडित वीरेश्वर द्विवेदी जी के मुंह से ही सुना। और वहां से इस आंदोलन के बारे में सुनने-जानने-समझने का सिलसिला शुरू हुआ, तो आज तक चलता ही आ रहा है। ये मेरा सौभाग्य था कि 1989 तक करीब-करीब मेरी हर शाम राष्ट्रधर्म कार्यालय में ही गुजरती थी। और राष्ट्रधर्म के संपादक का कक्ष इस आंदोलन के बारे में चर्चा ही नहीं, रणनीति का भी एक केंद्र था। इसलिए रामजन्मभूमि आंदोलन की बहुत सी बातें अनायास ही कानों में पड़ती रहती थीं। जैसा कि पहले बता चुका हूं, कि मैं अयोध्या का ही रहनेवाला हूं, तो वहां होनेवाली बातों का भौगोलिक चित्रण भी मेरे लिए आसान था। 

(क्रमशः)

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