जग पानी के लिए रो रहा
होकर पानी – पानी राम,
रहते वक्त न ये जग चेता
बिगड़ी तभी कहानी राम ।
नदियां सूखीं, पोखर सूखे
सूखे कुएं तलाव रे,
हैंडपंप औ ट्यूबवेल सूखे
धरती बनी अलाव रे;
दादा जी ने पेड़ लगाए
हमने सारे काट दिए,
नई पौध न लगी एक भी,
सूखी चूनर धानी राम ।
गंगा सूखीं, यमुना सूखीं
सरस्वती भी लोप रे,
बिन मौसम कोसी उफनाए
ये कुदरत का कोप रे ;
पूजा पूर्वजों ने जिनको
हमने उनको बाँध दिया,
आज लग रहा विजय नहीं वो
थी मेरी नादानी राम ।
रोटी रूखी, थाली सूखी
न नसीब में दाल रे,
टिके खेत में नहीं जवानी
बुरा गाँव का हाल रे ;
जो बोया वो काट रहा जग
है दस्तूर पुराना ये,
जैसी करनी वैसी भरनी
ये कबिरा की बानी राम ।
– ओमप्रकाश तिवारी